उजाले की ओर ...
दोस्त...।
बचाकर रखना
चाहता हूं मैं
तुम्हें और तुम्हारा प्यार
अपनत्व र्आैर स्नेह
जैसे बचाकर रखती है मां
अपने आंसू
बुरे वक्त के लिए ...।
आधुनिकता के इस जंगल में
बचाना चाहता हूं
विरासत का बूढ़ा बरगद
रिश्तों की बंजर जमीन पर
उगाना चाहता हूं
उम्मीदों के फूल...
यादों की गहरी घाटियों में
धुंधलाते लोक गीतों की तरह
सहेजना चाहता हूं मैं
बचपन...।
जैसे बचाकर रखता है किसान मुट्ठी भर अनाज
अगली फसल के लिए...।
नफरतों के इस दौर में
बचाना चाहता हूं मैं अमन...
आने वाली नसलों के लिए
जैसे खिलाफ हवा में
हथेली की ओट से
बचाई जाती है दीये की लौ
अंधेरे में उजाले के लिए ...।
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मां से ...
मां...।
छोड़ आया हूं मैं तुम्हें
गंगा के घाट पर
विसर्जित कर दी है
तुम्हारी हड्डियां
गंगा की पावन लहरों में...
घोर नास्तिक होते हुए भी
मैंने पूरी श्रद्धा से निभाए
सारे संस्कार
जैसा कि तुम चाहती थी...
पर मां..।
अंतिम विदाई से पूर्व
गंगा के घाट पर
नहीं सुन पाया पंडे का मंत्रोचारण
तुम्हारी हड्डियों में तलाशता रहा
मैं , तुम्हारा चेहरा
महसूस करता रहा
तुम्हारे हाथों का स्पर्श
और आर्शीवाद लेने के लिए
तलाशता रहा तुम्हारे चरण...
मां...।
मैंने गंगा की लहरों में
टपका दिए हैं दो बूंद आंसू
इस उम्मीद के साथ
कि भागीरथी की लहरें
कहीं न कहीं करवाएगी
इनसे तुम्हारा स्पर्श
मां...।
तब तुम मुझे आर्शीवाद
जरूर देना...।
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